रात के अन्धेरें में था मैं
खड़ा जैसे एक पुतलाऔर ज़िन्दगी जैसे बदली हमेशाके लिए
वोह ,पल न फिर न आयेंगे
यह जान कर जैसे ज़िन्दगी जीनेकी
आशा ही मर गयी अपनी
कुछ रकीबोंसे और कुछ दोस्तों सें
सूना उनके बारेमें ऐसे कुछ
भौचक्का ही रह गया मैं
मैं सारी ज़िन्दगो यही सोचता था
की गलती मेरी ही थी उन्होंने तो सिर्फ मेरे ज़ुल्म सहे
किया मैंने सिर्फ शोषण
जब सुनी उनकी फरेब की कहानी
तो सूम सा होगया..
मेरे मनमें एक भगवान छबीथी उनकी
उस छबीको उसीने मरोड़ दिया मानों इंसानसे भरोंसा ही उठ गया
इतना फरेब होता है ?
इन्सान सिर्फ अपनों से ही नहीं
अपने आप से भी झूठ बोलता है ?
अपने आप से भी झूठ बोलता है ?
क्यों पैसा इंसान का फरेब छूपा सकता हैं?
और वही इन्सान क्या दूसरों को इतना
निचे दिखा सकता हैं ?और वही इन्सान क्या दूसरों को इतना
पता नहीं क्यों उन्हीके रकीबों और दोस्तों को
उनके कुछ आसू , और कुछ दीवानगी
पर थोडा तरस भी और
थोडा हसना भी आया !
रात के अन्धेरें मे था मैं
खड़ा जैसे एक पुतला
अपनी किस्मत का वही पल
जैसे पकड़ने की कोशिश में
और ज़िन्दगी ने ऐसी करवट ली
हमेशा के लिए
मैं वही पुतला जाने
हाथ में एक मंगलसूत्र लिए
अपनी मौत की रहा देखता
असमान से मानों भीक मांग रहा था
की अब तो उसे इस नापाक ज़िन्दगी से
कुछ पाक मौत मिले और वोह चली जाएँ अपने अनेक प्रेमियों के साथ
कहीं दूर सुंदर से असमान से मिलने! Parag Shah
December 2011
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